सरकारी नाम: रवींद्र सेतु
डिजाइन: सस्पेंशन टाइप संतुलित कैंटीलीवर एवं ट्रस आर्क
कुल लंबाई: 705 मीटर (2313.0 फीट)
चौड़ाई: 71 फीट (21.6 मी.) दोनो तरफ 15 फीट (4.6 मी.) के दो फुटपाथ
ऊंचाई: 82 मीटर (269.0 फीट)
सबसे लंबा स्पैन: 1500 फीट (457.2 मीटर)
निर्माण शुरू एवं समाप्त: 1936 – 1942
खोला गया:3 फरवरी, 1943
दैनिक ट्रैफिक: 1,00,000 वाहन तथा 1,50,000 पैदल यात्री


  • रवींद्र सेतु / हावड़ा ब्रिज  कोलकाता, पश्चिम बंगाल
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  • रवींद्र सेतु / हावड़ा ब्रिज  कोलकाता, पश्चिम बंगाल
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रवींद्र सेतु / हावड़ा ब्रिज  कोलकाता, पश्चिम बंगाल

हावड़ा ब्रिज/ रवींद्र सेतु एक कंटीलीवर पुल है, जो पश्चिम बंगाल, भारत के हुगली नदी के ऊपर सस्पेंडेड स्पैन के साथ है । वर्ष 1943 में चालू हुए इस पुल का मूल नाम ‘न्यू हावड़ा ब्रिज’ था क्योंकि हावड़ा एवं कोलकाता दो शहरों को जोड़ने वाले उसी स्थान पर पीपों के पुल के स्थान पर बना था । 14 जून 1965 को इसे रवींद्र सेतु का नया नाम दिया गया, जो कि बंगाल के महान कवि रवींद्र नाथ टैगोर के नाम पर रखा गया था, जो प्रथम भारतीय एवं एशियन नोबेल पुरस्कार विजेता थे । इसे अभी भी हावड़ा ब्रिज के लोकप्रिय नाम से जाना जाता है ।

हुगली नदी पर बना यह पुल कोलकाता एवं पश्चिम बंगाल का एक सुप्रसिद्ध प्रतीक है । बंगाल की खाड़ी से उठने वाले तूफान को झेलते हुए यह रोजाना लगभग एक लाख वाहनों तथा डेढ़ लाख से अधिक पैदल यात्रियों का वहन कर रहा है जिससे यह दुनिया के सबसे व्यस्ततम कंटीलीवर पुल बन गया है । अपने निर्माण के समय तीसरा सबसे लंबा कंटीलीवर पुल हावड़ा ब्रिज आज दुनिया में अपनी तरह का छठा सबसे लंबा पुल है।

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हुगली नदी के ऊपर बढ़ते हुए यातायात के मद्देनजर इसके ऊपर पुल निर्माण के लिए विकल्पों की समीक्षा हेतु 1855-56 में एक समिति नियुक्त की गई थी । वर्ष 1859-60 में योजना पर विचार स्‍थगित कर दिया गया था । जिसे 1868 में प्राप्‍त किया जाना था, जब यह निश्चय किया गया कि एक पुल का निर्माण किया जाए और इसका प्रबंध करने के लिए एक ट्रस्‍ट की नव नियुक्ति की गई । वर्ष 1870 में कलकत्‍ता पोर्ट ट्रस्ट की स्‍थापना की गई तथा बंगाल की तत्‍कालीन सरकार के विधायी विभाग ने वर्ष 1871 में हावड़ा ब्रिज अधिनियम पारित किया । वेस्ट बंगाल एक्ट IX ऑफ 1871 के अधीन, जिसमें पोर्ट कमीश्‍नरों के तत्वाधान में सरकारी पूंजी के साथ पुल के निर्माण हेतु को लेफ्टि‍नेंट गवर्नर को शक्ति प्रदान किया गया था ।

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आखिरकार एक पीपों के पुल का निर्माण करने के लिए सर ब्राडफोर्ड लेसली के साथ एक करार पर हस्ताक्षर किया गया था । विगत 1860 में यह महसूस किया गया था कि हावड़ा एवं कलकत्‍ता को एक पुल के जरिए जोड़ा जाए । अत: पीपों के पुल के लिए इंगलैंड से ऑर्डर दिए गए तथा पोर्ट ट्रस्‍ट द्वारा कोलकाता में असेंबल किया गया । इस पुल को 20 मार्च 1874 में आए एक बड़े तूफान के द्वारा व्‍यापक रूप से क्षतिग्रस्‍त कर दिया गया था । इजेरिया नामक एक स्‍टीमर ने अपना बंधन तोड़ते हुए पुल को टक्कर मार दी और तीन पीपे डूब गए तथा पुल का करीब 200 फीट का हिस्सा नष्ट हो गया । पुल को 1874 में पूरा किया गया जिस पर कुल लागत 2.2 मिलियन आई तथा उसी वर्ष 17 अक्टूबर को यातायात के लिए खोल दिया गया । उस समय पुल की लंबाई थी 15.28 फीट और चौड़ाई 62 फीट उसके साथ दोनों और 7 फीट चौड़ी पटरी थी । शुरु-शुरु में पुल को समय-समय पर खोल दिया जाता था ताकि स्‍टीमर तथा अन्‍य जलयान पार हो सके । 1906 के पहले तक जलयानों को आने - जाने के लिए सिर्फ दिन के समय पुल को खोल दिया जाता था । उसी वर्ष जून से समुद्री स्टीमरों के अलावा अन्‍य सभी जलयानों के लिए रात में खोला जाना शुरू किया गया, क्योंकि समुद्री स्टीमरों को दिन के समय पार होने की जरूरत होती थी । 19 अगस्त 1879 से पुल को बिजली के खंभों से आलोकित किया गया, जिसे मल्लिक घाट पंपिंग स्टेशन पर डायनामो से बिजली मिलती थी । चूंकि तेजी से बढ़ते हुए वजन को पुल हैंडल नहीं कर सकता था, पोर्ट कमिश्नरों ने वर्ष 1905 में नए उन्नत पुल के लिए योजना बनाना शुरू किया ।

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पोर्ट ट्रस्ट के मुख्य इंजीनियर मि. जे. मैकग्लाशन पुराने पीपों के पुल को स्‍थायी ढांचे से बदल देना चाहते थे क्योंकि वर्तमान पुल उत्तर-दक्षिण नदी ट्रैफि‍क के बीच में पड़ता था । कार्य प्रारंभ नहीं हो सका क्योंकि विश्‍व युद्ध-I (1914-1918) प्रारंभ हो चुका था । तब वर्ष 1926 में सर आर. एन. मुखर्जी की अध्यक्षता में एक कमीशन ने हुगली नदी के ऊपर एक विशेष प्रकार के सस्‍पेंशन पुल बनाने की सिफारिश की । पुल की डिजाइन मेसर्स रेनडेल पामर एंड ट्रिटोन की मि. वाल्‍टन द्वारा बनाई गई थी । वर्ष 1939 में सर्वश्री क्लेवलैंड ब्रिज एंड इंजीनियरिंग कंपनी को निर्माण एवं इरेक्शन के लिए आदेश दिए गए। पुनः विश्व युद्ध-।। (1939-1945) ने बीच में हस्‍तक्षेप किया । इंग्लैंड से आने वाला समस्‍त स्टील यूरोप में युद्ध प्रयासों के लिए घुमा दिया गया । पुल के लिए जरूरत 26,000 टन स्टील मे इंग्लैंड से सिर्फ 3,000 टन की आपूर्ति की गई। जापानी धमकियों के बावजूद तत्कालीन भारत सरकार (ब्रिटिश) निर्माण पर दबाव डालती रही । टाटा स्टील को शेष 23000 हाई टेंशन स्‍टील की आपूर्ति करने के लिए कहा गया था । टाटा स्टील ने पुल के लिए जरूरी स्टील की क्वालिटी उन्‍नत की, जिसे टिस्‍कॉन कहा गया। समूचा 23,000 टन की आपूर्ति समय पर की गई । फेब्रिकेशन एवं इरेक्शन का कार्य हावड़ा के एक स्थानीय इंजीनियरिंग फॉर्म को दिया गया था । यह ब्रेथवेट एंड जेसप कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड (बीबीजे) के नाम से मशहूर था ।

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युद्ध के कारण कोई उद्घाटन समारोह आयोजित नहीं हुआ तथा वर्ष 1943 में इसे आम जनता के लिए खोल दिया गया था । यह एक अनूठा पुल था जो उस समय दुनिया का अपनी तरह का पहला पुल था । पुल को अधिकारिक तौर पर ‘सस्पेंशन टाइप बैलेंस कैंटीलीवर’’ के रूप में वर्गीकृत किया गया था । जब इसे चालू किया गया तब यह दुनिया का तीसरा सबसे लंबा कैंटीलीवर पुल था। पुल में एक भी नट बोल्ट नहीं है । यह रिवेट से निर्माण किया हुआ पुल है। पुल का डेक मुख्‍य ट्रस से सस्‍पेंडेड हैंगरों की 39 जोड़ी से लटका हुआ है ।

इस पुल को पूरा हो जाने से भारत पुल निर्माण के युग में प्रवेश कर गया था परंतु वास्तविक श्रेय टाटा स्टील और ब्रेथवेट बर्न एंड जेसप कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड (बीबीजे) के कामगारों को जाना चाहिए । जापानी हवाई हमलों के बावजूद (आखिरी जापानी हवाई हमला 5 दिसंबर 1941 को हुआ था) कार्य समय पर समाप्त हुआ था ।

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पुल को पूरा होने में सिर्फ 4 वर्ष का समय लगा और वह भी युद्ध के वर्षों के दौरान जब मानव व सामग्रियों दोनों की आपूर्ति कम थी । शहर के भीतर कड़ाई से लागू ब्‍लैक आउट के बावजूद 24 घंटे काम चल रहा था तथा निर्माण के दौरान कोई बड़ी दुर्घटना नहीं घटी ।

मुख्य टावर का निर्माण प्रत्येक 6.25 मीटर वर्ग वाले 21 सॉफ्ट के साथ 55.31 x 24.8 मीटर डायमेंशन के सिंगल मोनोलिथ कैसंस के साथ किया गया था । फेब्रिकेशन का कार्य कोलकाता के चार विभिन्न शॉपों में दि ब्रेथवेट बर्न एंड जेसप कंस्‍ट्रकशन कंपनी लिमिटेड द्वारा किया गया था । दो ऐंकरेज कैसंसों में प्रत्येक 16.4 मीटर x 8.2 मीटर के साथ 4.9 मीटर वर्ग के दो गढ्ढे थें । कैसंसों की डिजाइन इस तरह से बनाई गई थी कि शॉफ्टों के भीतर वर्किंग चेंबर को स्‍टील डायाफ्राम से बंद किया जा सकता था, ताकि जरूरत पड़ने पर दबाव युक्‍त हवा के अधीन काम किया जा सके । कोलकाता की ओर कैसंस को 31.41 मीटर पर एवं हावड़ा की ओर 26.53 पर भूमि तल से नीचे बैठाया गया था ।

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एक रात गंदगी पकड़ने की प्रक्रिया के दौरान को कैसन को हटाते वक्‍त नीचे की जमीन ढह गया तथा भूमि हिलते हुए समूचा अंबार 2 फीट धँस गया । इसका असर इतना गहरा था कि खिदिरपुर स्थित भूकंप लेखी मशीन में भूकंप के रूप में दर्ज हो गया तथा तट पर बना एक हिंदू मंदिर नष्ट हो गया । यद्यपि बाद में इसे फिर से बना दिया गया । जब गंदगी की सफाई की जा रही थी, असंख्‍य तर‍ह की वस्‍तुएं निकली थीं , जिनमें शामिल थे लंगर, ग्रैपलिंग आयरन, तोप, तोप गोला, पीतल के वैसल तथा ईस्ट इंडिया कंपनी से पहले की तारीख के सिक्के ।

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कैसनो के डुबोने का कार्य रात दिन चलता रहा था, जो प्रतिदिन 1 फीट या उससे अधिक की दर से किया जाता था । कैसनों को नदी की नरम जमावट से होते हुए जमीनी स्तर से 26.5 मीटर नीचे कठोर पीली मिट्टी तक डुबोया गया था । विशाल कैसनों को डुबाने की सटीकता 50-75 मिली मीटर के भीतर बिल्कुल सही स्‍थान पर थी । मिट्टी में 2.1 मी घुसाने के बाद सभी प्रत्‍येक शाफ्टों में से पानी निकालने के बाद निकट की शाफ्टों में करीब 5 मीटर की बैक फीलिंग करके कंक्रीट के साथ प्‍लग कर दिया गया था । हावड़ा की ओर मुख्‍य खंभा को ओपेन व्‍हील ड्रेजिंग के द्वारा डुबोया गया था । जबकि कोलकाता की ओर से खंभे को खसक रहे बालू का मुकाबला करने के लिए कंप्रेस्‍ड एयर की जरूरत थी । प्रति वर्ग इंच (2.8बार) पर 40 पाउंड के करीब एयर प्रेसर रखने के लिए 500 कामगारों के नियोजन की जरूरत थी । जब कभी भी विशेष रूप से अत्‍यधिक नरम मिट्टी मिल जाती थी, तो शाफ्ट कैसन की धुरी के सुडौल कठोर नियंत्रण करने के लिए बगैर खुदे ही छूटा रह जाता था । अत्यंत कठोर मिट्टी में बड़ी संख्या में भीतरी गड्ढे पूरी तरह से कम कटे रह जाते थे, जिससे कैसनों का संपूर्ण वजन बाहरी स्किन फ्रिक्‍शन तथा बाहरी दीवार के नीचे बेयरिंग द्वारा वहन करना होता था । मोनोलिथ दीवार के बाहर स्किन फ्रिक्‍शन का अनुमान 29kN/m2 पर होता था जबकि मिट्टी में कटिंग एज पर वजन जो नींव की परत के ऊपर है 100 टन/मीटर पर पहुंच जाता था । नींव का कार्य नवंबर 1938 में पूरा हो गया था ।

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वर्ष 1940 के अंत तक कैंटीलीवर आर्म का इरेक्शन प्रारंभ हो चुका था तथा 1941 के गर्मियों के मध्य तक पूरा हो गया था । सस्पेंडेड स्‍पैन के दोनो आधे, प्रत्येक 282 फीट लंबे (86 मीटर) और वजन 2000 टन का निर्माण दिसंबर 1941 में हुआ था । पुल के इरेक्शन का कार्य दोनों ऐंकर स्‍पैनों से शुरू करके मध्‍य की ओर क्रीपर क्रेनो के प्रयोग से ऊपरी कॉर्ड के साथ– साथ चलते हुए अग्रसर हुआ था । 800 टन प्रत्‍येक की क्षमता वाली 16 हाइड्रॉलिक जैक को सस्‍पेंडेड स्‍पैनों के दोनों अर्द्धहिस्‍से को जोड़ने के लिए सेवा में लगाया गया था ।

समूची परियोजना की लागत 25 मिलियन (2,463,887 पौंड) थी । परियोजना पुल निर्माण में अग्रणी थी, खासकर भारत में परंतु सरकार ने पुल को औपचारिक तरीके से नहीं खोला था, क्योंकि उसे भय था कि भिन्‍न राष्ट्रों की शक्तियों से युद्ध कर रहे कहीं जापानी जहाजों द्वारा हमला ना कर दिया जाए । जापान ने 7 दिसंबर 1941 को यूनाइटेड स्टेट, पर्ल हर्बल पर आक्रमण कर दिया था । पुल का इस्तेमाल करने वाला प्रथम वाहन - एक अकेला ट्राम था ।

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25 जून 2005 को जब एक निजी कार्गो वैसल एम बी मणि जो गंगेज वाटर ट्रांसपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड का था, उच्च ज्वार के समय पुल के नीचे से पार करते समय पुल के नीचे 3 घंटे तक उसकी चिमनी फंस गई थी, जिससे उसकी लंबी पट्टी तथा पुल का खड़े गर्डर को काफी नुकसान पहुंचा था, जिसकी लागत लगभग 15 मिलियन थी । 40 क्रॉस्‍ गर्डरों में से भी कुछ टूट गए थे । चार ट्रॉली गाइडों में से दो जो गर्डरों के साथ कसे और झलाई किए हुए थे, वह भी बुरी तरह नष्ट हो गए थे । 700 मीटरों ( 2300 फीट) में से 350 मीटर (1150 फीट) ट्रैक घूम गया था, जो मरम्मत से परे था । क्षति इतनी बड़ी थी कि कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट को यूके के मूल सलाहकार, रेंडल-पामर एंड ट्रिटोन लिमिटेड से मदद मांगने पड़ी । कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट ने वर्ष 1943 में इसके निर्माण के दौरान प्रयुक्त ‘मैचिंग स्टील’ के लिए सेल से भी मरम्मत के लिए संपर्क किया था । मरम्मत के लिए लगभग 5 मिलियन (83000 यूएस डॉलर) की लागत आई, जिसमें 8 टन स्टील का उपयोग हुआ । मरम्मत का कार्य 2006 की शुरूआत में पूरा कर लिया गया था । पुनः समूची मरम्मत प्रक्रिया दि ब्रेथवेट एण्‍ड जेसप कंस्‍ट्रक्‍शन कंपनी लिमिटेड द्वारा की गई ।

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